न्यायालय ने राजद्रोह मामलों में कार्यवाही पर लगाई रोक, नई प्राथमिकियां दर्ज नहीं करने का निर्देश

नयी दिल्ली. उच्चतम न्यायालय ने देशभर में राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर बुधवार को तब तक के लिए रोक लगा दी, जब तक कोई ‘उचित’ सरकारी मंच इसका पुन: अध्ययन नहीं कर लेता. शीर्ष अदालत ने केंद्र एवं राज्यों को निर्देश दिया कि राजद्रोह के आरोप में कोई नई प्राथमिकी दर्ज नहीं की जाए.

प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने व्यवस्था दी कि प्राथमिकी दर्ज कराने के अलावा, देशभर में राजद्रोह संबंधी कानून के तहत चल रही जांचों, लंबित मुकदमों और सभी कार्यवाहियों पर भी रोक रहेगी. शीर्ष अदालत ने मामले को जुलाई के तीसरे सप्ताह के लिए सूचीबद्ध किया और कहा कि उसके सभी निर्देश तब तक लागू रहेंगे.

पीठ ने कहा कि देश में नागरिक स्वतंत्रता के हितों और नागरिकों के हितों को राज्य के हितों के साथ संतुलित करने की जरूरत है.
पीठ ने कहा, ‘‘यह अदालत एक तरफ देश के सुरक्षा हितों और अखंडता से अवगत है, तो दूसरी तरफ उसे नागरिक स्वतंत्रताओं और नागरिकों का भी ध्यान है. दोनों के बीच संतुलन की जरूरत है जो कठिन काम है.’’

उन्होंने कहा, ‘‘याचिकाकर्ताओं का पक्ष है कि कानून का यह प्रावधान संविधान की रचना से पहले का है और इसका दुरुपयोग किया जा रहा है.’’ राजद्रोह में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत अधिकतम सजा उम्रकैद का प्रावधान है. इसे देश की स्वतंत्रता के 57 साल पहले तथा आईपीसी बनने के लगभग 30 साल बाद, 1890 में दंड संहिता में शामिल किया गया था. आजादी से पहले के कालखंड में बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ प्रावधान का इस्तेमाल किया गया.

पिछले कुछ सालों में इस तरह के मामले बढ़े हैं. महाराष्ट्र से सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति रवि राणा, लेखिका अरुंधति रॉय, छात्र कार्यकर्ता उमर खालिद और पत्रकार सिद्दीक कप्पन समेत अन्य पर इस प्रावधान के तहत आरोप दर्ज किये गये.
प्रधान न्यायाधीश रमण ने आदेश लिखते हुए अटॉर्नी जनरल द्वारा पहले हनुमान चालीसा पाठ करने के मामले जैसे विषयों में इस प्रावधान के दुरुपयोग के उदाहरण दिये जाने का संदर्भ दिया. केंद्र की ंिचताओं का संज्ञान लेते हुए शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) की कठोरता मौजूदा सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है’’.

उसने कहा, ‘‘हम अपेक्षा करते हैं कि इस प्रावधान का पुन: अध्ययन पूरा होने तक सरकारों द्वारा कानून के उक्त प्रावधान का उपयोग जारी नहीं रखना उचित होगा.’’ शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी प्रभावित पक्ष को संबंधित अदालतों में जाने की स्वतंत्रता है और अदालतों से अनुरोध है कि मौजूदा आदेश पर विचार करते हुए राहत की अर्जियों पर विचार करें.

आदेश में केंद्र के हलफनामे का जिक्र किया गया जिसमें स्वीकार किया गया है कि कानून पर विविध विचार हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नागरिक स्वतंत्रताओं के संरक्षण तथा मानवाधिकारों के सम्मान की वकालत करने का भी हवाला दिया गया है. पीठ ने कहा, ‘‘उपरोक्त के मद्देनजर, यह स्पष्ट है कि भारत सरकार इस अदालत द्वारा व्यक्त की गयी प्रथमदृष्टया राय से सहमत है. इस दृष्टि से भारत सरकार कानून के उक्त प्रावधान पर पुर्निवचार कर सकती है.’’ शीर्ष अदालत के आदेश में कहा गया कि कुछ याचिकाकर्ताओं को दिया गया अंतरिम स्थगनादेश अगले आदेश तक जारी रहेगा.

उसने कहा, ‘‘आईपीसी की धारा 124ए के तहत तय आरोपों के संबंध में सभी लंबित मुकदमों, अपीलों और कार्यवाहियों पर रोक रहेगी. अन्य धाराओं के संबंध में निर्णय लिया जा सकता है, यदि अदालतों की राय है कि आरोपी के साथ पक्षपात नहीं होगा.’’ पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक के अधिकारी को राजद्रोह के आरोप में दर्ज प्राथमिकियों की निगरानी करने की जिम्मेदारी देने के केंद्र के सुझाव पर पीठ सहमत नहीं हुई.

केंद्र की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने यह भी कहा कि राजद्रोह के आरोप में प्राथमिकी दर्ज करना बंद नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह प्रावधान एक संज्ञेय अपराध से संबंधित है और 1962 में एक संविधान पीठ ने इसे बरकरार रखा था. केंद्र ने राजद्रोह के लंबित मामलों के संबंध में न्यायालय को सुझाव दिया कि इस प्रकार के मामलों में जमानत याचिकाओं पर शीघ्रता से सुनवाई की जा सकती है, क्योंकि सरकार हर मामले की गंभीरता से अवगत नहीं हैं और ये आतंकवाद, धन शोधन जैसे पहलुओं से जुड़े हो सकते हैं.

विधि अधिकारी ने कहा था, ‘‘ अंतत: लंबित मामले न्यायिक मंच के समक्ष हैं और हमें अदालतों पर भरोसा करने की जरूरत है. ’’ उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को केंद्र से कहा था कि राजद्रोह के संबंध में औपनिवेशिक युग के कानून पर किसी उपयुक्त मंच द्वारा पुर्निवचार किए जाने तक नागरिकों के हितों की सुरक्षा के मुद्दे पर 24 घंटे के भीतर वह अपने विचार स्पष्ट करे.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार देश में 2015 से 2020 के बीच राजद्रोह के 356 मामले दर्ज किये गये और 548 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि छह साल की इस अवधि में राजद्रोह के सात मामलों में गिरफ्तार केवल 12 लोगों को दोषी करार दिया गया.

शीर्ष अदालत ने 1962 में राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखा था और इसका दायरा सीमित करने का प्रयास किया था ताकि इसका दुरुपयोग नहीं हो. शीर्ष अदालत राजद्रोह संबंधी कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.

राजद्रोह पर उच्चतम न्यायालय के आदेश की मुख्य बातें

उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर बुधवार को रोक लगा दी और केंद्र एवं राज्यों को निर्देश दिया कि जब तक सरकार औपनिवेशिक युग के कानून पर फिर से गौर नहीं कर लेती, तब तक राजद्रोह के आरोप में कोई नयी प्राथमिकी दर्ज नहीं की जाए.

उच्चतम न्यायालय के इस ऐतिहासिक आदेश के मुख्य ंिबदु इस प्रकार हैं:- न्यायालय ने गृह मंत्रालय के नौ मई के उस हलफनामे पर गौर किया जिसमें स्वीकार किया गया था कि विभिन्न न्यायविदों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और आम नागरिकों द्वारा सार्वजनिक रूप से व्यक्त किए गए विचारों में भिन्नता है.

प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षण, मानवाधिकारों के सम्मान आदि के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्पष्ट विचारों का जिक्र करने वाले हलफनामे के हिस्से पर गौर करने के बाद केंद्र को कानून पर पुर्निवचार करने की अनुमति दी.

न्यायालय के आदेश में हलफनामे में उल्लिखित प्रधानमंत्री के विचार पर गौर किया गया है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत को औपनिवेशिक चीजों से छुटकारा पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. न्यायालय का यह आदेश भादंसं की धारा 124 ए की कठोरता के वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं होने की पीठ की प्रथम दृष्टया राय के मद्देनजर केंद्र के दृष्टिकोण से सहमत है कि वह अपने उचित मंच द्वारा प्रावधान पर पुर्निवचार करेगा.

आदेश में कहा गया है कि सर्वोच्च अदालत एक तरफ सुरक्षा हितों और राज्य की अखंडता तथा दूसरी ओर लोगों की नागरिक स्वतंत्रता के प्रति जागरूक है. इसमें अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल का हवाला दिया गया है, जिन्होंने सुनवाई की पिछली तारीख को इस प्रावधान के स्पष्ट दुरुपयोग के उदाहरण दिए थे और ‘हनुमान चालीसा’ के पाठ के मामले में इसे लागू करने का जिक्र किया था.
आदेश में कहा गया है कि उसे उम्मीद है कि पुर्निवचार होने तक सरकारें इस प्रावधान का इस्तेमाल नहीं करेंगी.

आदेश में कहा गया है कि 31 मई, 2021 को कुछ याचिकाकर्ताओं को दी गई अंतरिम रोक अगले आदेश तक कायम रहेगी. आदेश में कहा गया है कि प्रावधान के विचाराधीन रहने तक राज्यों और केंद्र सरकार पर भादंसं की धारा 124ए के तहत कोई प्राथमिकी दर्ज करने, जांच जारी रखने या कोई दंडात्मक कदम उठाने पर रोक रहेगी.

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