कोयले की ढुलाई के लिए अंग्रेजों ने भारत में बिछाई थी रेल लाइन

नयी दिल्ली. अंग्रेजी हुकूमत ने करीब 200 साल पहले कोयले की ढुलाई के लिए भारत में रेल लाइन बिछाने पर काम शुरू किया था और खनिजों एवं कोयले की ढुलाई के लिए यात्री गाड़ियों को भी रोक दिया जाता था. कोयला खनन के इतिहास को बयां करती एक पुस्तक में यह बात कही गई है.

राजकमल प्रकाशन समूह के उपक्रम सार्थक बुक्स द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार सुदीप ठाकुर की नयी किताब ‘दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई’ के अनुसार, अंग्रेजी हुकूमत को रेलवे की अहमियत पता थी जिसके जरिये वह हिन्दुस्तान के कोने-कोने से कीमती खनिज और कच्चा माल इंग्लैंड भेज रही थी और कोयला उसके लिए काला सोना साबित हो रहा था. पुस्तक में कहा गया है कि मालगाड़ियों की वजह से कई बार यात्री गाड़ियों को भी रोक दिया जाता था.

इसमें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के लिए शोध करने वाले दिलीप सिमियन के हवाले से कहा गया है कि बिहार के धनबाद-झरिया के कोयला क्षेत्र में 1895 में रेल लाइन के बिछने के बाद से कोयला उत्पादन में बेतहाशा वृद्धि होने लगी. कोयले और रेलवे के संबंधों का जिक्र करते हुए पुस्तक में कहा गया है कि हकीकत यह है कि अंग्रेजों ने करीब 200 साल पहले भारत से कोयले की ढुलाई के लिए ही रेल लाइन बिछाने पर काम शुरू किया था.

पुस्तक के अनुसार, ‘‘दरअसल 19वीं सदी के पूर्वार्ध में नील, चाय, अफीम और कपास के निर्यात के साथ ही बंगाल के रानीगंज क्षेत्र में कोयले का खनन शुरू हो चुका था. स्काटिश इतिहासकार और आईसीएस अधिकारी विलियम विल्सन हंटर का आकलन था कि दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह कोयले का उत्पादन और रेलवे का विस्तार साथ-साथ हुआ.’’ इसमें कहा गया है कि भारत में कोयले की खदानों की कहानी 250 साल पहले 1774 में ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से शुरू होती है जब दामोदर नदी के पश्चिमी तट पर स्थित रानीगंज में कोयला भंडार खोजा गया था.

किताब के अनुसार, पहली पंचवर्षीय योजना के मसौदे के मुताबिक, देश में करीब 6,500 करोड़ टन कोयले का भंडार था और इसका अधिकांश हिस्सा पश्चिम बंगाल और बिहार में जमीन के 2000 फुट नीचे था. तब देश के औद्योगीकरण के लिए इस कोयला भंडार को पर्याप्त माना गया था.

पुस्तक में खास तौर पर धनबाद के झरिया क्षेत्र और पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोयला क्षेत्र का उल्लेख किया गया है. इसमें कहा गया है कि इंदिरा गांधी के कार्यकाल में कोयला क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण के बाद कोयला उत्पादन में वृद्धि तो हुई लेकिन खास तौर से धनबाद, झरिया क्षेत्र में कोयला को लेकर गैंगवार तेज हो गई.

किताब के अनुसार, श्रमिकों की सुरक्षा का मुद्दा तो पहले से था और 27 दिसंबर 1975 को चासनाला की कोयला खदान में हुए हादसे की खबर से पूरा देश स्तब्ध रह गया था जब खदान से पानी निकालने के लिए पोलैंड और सोवियत संघ शक्तिपंप मंगवाए गए थे. कोई ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि आखिर खदान के भीतर क्या हुआ. पुस्तक में कोयला खदान हादसों की पड़ताल करते हुए कहा गया है कि कोयला खदानों में अतीत में कई हादसे हुए जिनमें अनेक श्रमिकों की जान चली गई लेकिन चासनाला की दुर्घटना सबसे भयावह थी जिसमें 375 लोगों के मारे जाने की आधिकारिक पुष्टि हुई थी.

इसमें कहा गया है कि झरिया, धनबाद कोयला क्षेत्र में श्रमिकों के शोषण के साथ लूट का सिलसिला साठ के दशक से शुरू हो गया था लेकिन 1970 का दशक आते-आते यह लूट कोयला खदान की समानांतर व्यवस्था में बदल गई थी. किताब के अनुसार, देश में 250 साल पहले शुरू हुई कोयले की अंतर्कथा जारी है. भाप वाले इंजनों की विदाई के बाद यह जरूर हुआ है कि रेलवे की कोयले पर सीधी निर्भरता खत्म हो गई है लेकिन सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा कोयले का दोहन जारी रहने वाला है क्योंकि देश को बिजली, इस्पात और सीमेंट संयंत्रों के लिए इसकी जरूरत है.

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