‘कुछ’ बनने की लगन ने सरिता माली को मुंबई की झुग्गी बस्ती से पहुंचाया अमेरिकी विश्वविद्यालय

नयी दिल्ली. सरिता माली की कहानी किसी परिकथा जैसी लग सकती है. सरिता मुंबई की झोपड़ पट्टी में पैदा हुई, नगर निगम के स्कूल में पढ़ीं और फिर सड़कों पर ट्रैफिक सिग्नल पर फूल बेचने के लिए गाड़ियों के पीछे दौड़ती रही. लेकिन कुछ बनने का सपना हमेशा उसकी आंखों में समाया रहा. उसने कभी अपने हालात और अपनी किस्मत को दोष नहीं दिया क्योंकि उसे अपने पिता की सीख हमेशा याद रही कि शिक्षा एकमात्र ऐसा हथियार है, जो उसे जहालत की इस ंिजदगी से छुटकारा दिला सकता है.

इसी शिक्षा को सरिता ने जादू की छड़ी बना लिया जिसने उसकी किस्मत पलट दी और मुंबई की झुग्गी बस्ती से आज वह अमेरिका की प्रतिष्ठित यूनिर्विसटी आफ कैलिफोर्निया, सांता बारबरा में ंिहदी में पीएचडी करने के लिए दाखिला पा चुकी है. उसके पिता उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से ताल्लुक रखते हैं जहां उनकी जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में गिना जाता है. लेकिन रोजी-रोटी की तलाश में वह मुंबई आ गए और ट्रैफिक सिग्नलों पर फूल मालाएं बेचने का काम शुरू किया. सरिता छठवीं कक्षा में पढ़ती थी, जब पिता के साथ उसे भी मुंबई के ट्रैफिक सिग्नल्स पर फूल बेचने के लिए गाड़ियों के पीछे दौड़ना पड़ता था.

दोनों बाप-बेटी को फूल बेचकर दिनभर में मुश्किल से 300 रुपए कमाई होती थी. मुंबई के घाटकोपर इलाके के पास की झुग्गी में पली-बढ़ी सरिता ने बचपन में लड़की होने और अपने गहरे सांवले रंग को लेकर भेदभाव देखा था. हालांकि हर कदम पर उसके पिता ने उसका साथ दिया.

दसवीं के बाद सरिता ने इलाके के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. वह पढ़ने की अपने पिता की इच्छा पूरी करना चाहती थी. पैसे बचाकर उसने केजे सोमैया कॉलेज आॅफ आर्ट्स एंड कॉमर्स में दाखिला लिया. उससे प्रेरित होकर बड़ी बहन और दो भाइयों ने भी पढ़ाई को नहीं रोका. उनके पिता को बीए, एमए की डिग्रियों की समझ नहीं है लेकिन वह इतना जरूर जानते हैं कि शिक्षा सबसे बड़ी ताकत है.

फेसबुक पोस्ट में सरिता माली ने अपने संघर्षों की दास्तां शेयर की है. उसने लिखा कि अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में मेरा चयन हुआ है- यूनिर्विसटी आॅफ कैलिŸफोर्निया और यूनिर्विसटी आॅफ वॉंिशगटन… मैंने यूनिर्विसटी आॅफ कैलिŸफोर्निया को वरीयता दी है. मुझे इस यूनिर्विसटी ने मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फेलोशिप में से एक ‘चांसलर Ÿफेलोशिप’ दी है.

सड़क पर फूल बेचते हुए भी सरिता को उसके पापा समझाते थे कि पढ़ाई ही सभी भाई-बहनों को इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है. सरिता के अनुसार, ‘‘पिता हमसे कहते थे, अगर हम नहीं पढ़ेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को ंिजदा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जाएगा. हम इस देश और समाज को कुछ नहीं दे पाएंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे.’’ इसी भूख अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में सरिता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ंिहदी साहित्य में स्रातकोत्तर की उपाधि लेने आई.

जेएनयू में पढ़ाई करना भी सरिता के जीवन की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी क्योंकि एक बार जब वह अपनी नानी के यहां गई तो उसने देखा कि उसका ममेरा भाई जेएनयू में दाखिले की तैयारी कर रहा था. उसके मामा ने उसकी मां को कहा कि जेएनयू में जो दाखिला पा जाता है, वह वहां से ‘कुछ’ बनकर ही निकलता है. और यहीं से सरिता को जेएनयू जाकर ‘कुछ’ बनने की धुन लग गई. हालांकि वह कहती है, ‘‘उस समय नहीं पता था कि जेएनयू क्या है. लेकिन ये ‘कुछ’ बनने के लिए मैंने बारहवीं में ही ठान लिया कि मुझे जेएनयू में ही दाखिला लेना है.’’ और तीन साल की मेहनत के बाद उनका ओबीसी सीट पर ंिहदी एमए प्रथम वर्ष में दाखिला हो गया.

सरिता कहती हैं कि जेएनयू में दाखिला उनकी ंिजदगी का एक महत्वपूर्ण मोड़ था और इसके लिए उन्होंने तीन साल तक मेहनत की थी.  सरिता दिल्ली के जेएनयू के अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति को अपने व्यक्तित्व को गढ़ने का श्रेय देती है. वह कहती है, ‘‘जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया. जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके. मैं बेहद उत्साहित हूं कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है.’’

साल 2014 में 20 साल की उम्र में जेएनयू में स्रातकोत्तर (पीजी) करने आई सरिता अब यहां से एमए, एमफिल की डिग्री लेकर इस साल पीएचडी की थीसिस जमा करने के बाद अमेरिका में दोबारा पीएचडी करने जा रही हैं. वहां वह ‘भक्ति काल के दौरान निम्नवर्गीय महिलाओं का लेखन’ विषय पर शोध करेंगी.

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